नील नभ के नयन में स्वप्न-दीप टिमटिमाए,
चाँदनी के करों से आँसुओं के रत्न सजाए।
काल-रेत की लहरें हर निशानी बहा ले गईं,
किन्तु पवन के पंखों पर दिशा नई लिख आई।
काँटों की करधनी में कमल-गंध मुस्काई,
वज्र से कठोर वेदना भी मृदु वीणा बन पाई।
तमस-गुफ़ाओं में जब छाया का प्रलय बरसा,
दीपक ने हृदय से प्रभा का आँगन रच डाला।
अश्रु-अंबर से झरे मोती बनकर हर पीड़ा,
विरह-शारदीय शशि-सा, निर्मल हँसी बिखेर लाई।
तूफ़ानों की गर्जना में पतवार गीत गाती,
वज्र-वृष्टि की चोटों को हृदय कमल सहलाता।
मृत्यु की मौन वीणा पर जीवन की तान गूँजी,
शूलों की शैया पर भी कुसुम-गंध महकी।
भाग्य के बंधन जब नागपाश से लिपटे,
धैर्य ने वज्र बनकर हर पाश तोड़ डाले।
स्वप्न-खंडित हज़ार हुए, पर आस्था न टूटी,
ज्योतिर्मय आत्मा से अंधकार झुक गया।
इतिहास यदि पूछे मेरी व्यथा का लेखा,
कहेगा राख से भी स्वर्ण किला गढ़ा मैंने।
....सर्वेश दुबे
०८/०९/२०२५
No comments:
Post a Comment