Tuesday, September 22, 2009

मँहगाई और तनख्वाह

मँहगाई और तनख्वाह
एक बहुत आगे एक बहुत पीछे

आइये मँहगाई पे कुछ चित्र खीचें

दिन मे दिखाये ये सबको तारे
जिससे परेशान सभी है बेचारे

मँहगाई की पीछा जो कभी ना कर पाये
वही महीने की तनख्वाह कहलाये

कुछ समय बाद किलो मे, वस्तुओ
को खरीदना स्वप्न हो जायेगा
10 ग्राम घी खरीदने के लिये भी बैक
सस्ते दर पे कर्ज उपलब्ध करवायेगा

महिने के लिये घर का राशन
तौल कर नही गिन कर आयेगा
आने वाले समय मे आदमी अपनी
जेबे बडी और झोला छोटा सिलवायेगा


मँहगाई की परिभाषा,
ये कभी कम हो होगा, मत
करना ऐसी मूर्खतापूर्ण आशा


एक तरफ़ गडढा एक तरफ़ खाई
इस कहावत का नया रूप होगा
एक तरफ़ तनख्वाह एक तरफ़ मँहगाई

शादी के विग्यापन कुछ इस तरह
आवश्यकता है – वर की -------,
ब्राह्मण हो या चाहे हो कसाई
पछाड सके उसको जिसको कहते है मँहगाई

5 comments:

sanjay vyas said...

बहुत बढ़िया. नए तरीके से व्याख्यायित किया है आपने.

के सी said...

सर्वेश जी कविता ने सभी रंग बिखेरे हैं बहुत आनंद आया पढ़ते हुए, व्यंग्य के साथ विनोद है तो इन्हीं में छुपी गहरी सोच भी.

Servesh Dubey said...

प्रिय किशोर जी धन्यवाद ---------

Servesh Dubey said...

प्रिय व्यास जी ,
आपको भी धन्यवाद!

व्यास -- जिसमे केन्द्र निहित हो , वृत्त की सबसे बडी जीवा

anshuja said...

nice poem...badhai