रुके, देखे और सुने
इन तीनों का योग
था,
मनुष्यों का पहला धर्म,
पहला स्पर्श, पहली पहचान।
जो रुकना नहीं जानते,
वे केवल मिलते हैं
जुड़ते नहीं।
क्योंकि जो जुड़ना चाहता है,
वह पहले अपनी रफ़्तार रख देता है
दूसरे की साँसों के बराबर।
संबंध समय नहीं माँगते,
सिर्फ़ एक सचेत पल बुलाते हैं
जिसमें आप सच में उपस्थित हों।
देखना
सिर्फ़ चेहरा नहीं,
उस पर चढ़ी थकान,
हल्की-सी चिंता,
और मुस्कान के पीछे छिपा
अनबोला संघर्ष।
सुनना
सिर्फ़ शब्दों की ध्वनि नहीं,
उस दिल की धकधक
जो आवाज़ से पहले उठती है।
कई बार “हूँ” भी संवाद होता है,
और कई बार पूरी बात सुनकर भी
लोग कुछ नहीं सुनते।
रिश्ते इन्हीं दोनों के फर्क पर टिके होते हैं।
जो रुक कर सुनता है,
वही मिट्टी को आकार दे पाता है।
जो देख कर समझता है,
वही पेड़ उगा पाता है।
और जो बिना बोले साथ निभाता है,
वही पेड़ को छाया तक ले जाता है।t
संबंध शब्दों से नहीं
इरादों से टिकते हैं।
दिल की सच्ची नमी ही
हर पत्ते को हरा रखती है।
समय सब ठीक कर देता है।
दुनिया यह मानती है
पर सच यह है
समय नहीं,
नीत, नीयत और नर्मी
रिश्तों को थामती है।
जो मन में जगह दे दे,
वह दिल में घर बना लेता है।
जो मौन में सुन ले,
वह जीवनभर समझ में बस जाता है।
रुके, देखे और सुने
इसी क्रम में जन्म लेते हैं
विश्वास, अपनापन, और प्रेम।
और जब यह तीनों जन्म लेते हैं
तो दूरी भी मिटती है,
अहं भी पिघलता है,
और संबंध एक ऐसी डोर बन जाते हैं
जो समय के रस्साकशी में
कभी नहीं टूटता है।
........ सर्वेश
(०९/११/२५)


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