Thursday, January 29, 2009

होठों को क्यो सी लेते हो?

कह दो दिल मे प्रीत जो तेरे
होठों को क्यो सी लेते हो?
क्या खाते तुम क्या पीते हो
मेरे बिन तुम जी लेते हो?


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नही संयोग, ये होता है योग
कि मन के रिश्ते बन जाते है।
अन्तहीन इसकी सीमा रेखा फ़िर भी
सब इसमे समा नही पाते है…

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1 comment:

रश्मि प्रभा... said...

बहुत ही अच्छी बानगी है.....