मँहगाई और तनख्वाह
एक बहुत आगे एक बहुत पीछे
आइये मँहगाई पे कुछ चित्र खीचें
दिन मे दिखाये ये सबको तारे
जिससे परेशान सभी है बेचारे
मँहगाई की पीछा जो कभी ना कर पाये
वही महीने की तनख्वाह कहलाये
कुछ समय बाद किलो मे, वस्तुओ
को खरीदना स्वप्न हो जायेगा
10 ग्राम घी खरीदने के लिये भी बैक
सस्ते दर पे कर्ज उपलब्ध करवायेगा
महिने के लिये घर का राशन
तौल कर नही गिन कर आयेगा
आने वाले समय मे आदमी अपनी
जेबे बडी और झोला छोटा सिलवायेगा
मँहगाई की परिभाषा,
ये कभी कम हो होगा, मत
करना ऐसी मूर्खतापूर्ण आशा
एक तरफ़ गडढा एक तरफ़ खाई
इस कहावत का नया रूप होगा
एक तरफ़ तनख्वाह एक तरफ़ मँहगाई
शादी के विग्यापन कुछ इस तरह
आवश्यकता है – वर की -------,
ब्राह्मण हो या चाहे हो कसाई
पछाड सके उसको जिसको कहते है मँहगाई
Tuesday, September 22, 2009
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5 comments:
बहुत बढ़िया. नए तरीके से व्याख्यायित किया है आपने.
सर्वेश जी कविता ने सभी रंग बिखेरे हैं बहुत आनंद आया पढ़ते हुए, व्यंग्य के साथ विनोद है तो इन्हीं में छुपी गहरी सोच भी.
प्रिय किशोर जी धन्यवाद ---------
प्रिय व्यास जी ,
आपको भी धन्यवाद!
व्यास -- जिसमे केन्द्र निहित हो , वृत्त की सबसे बडी जीवा
nice poem...badhai
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